नेताजी अभिमान में, भूल गए सम्मान!
चित्तौड़गढ़ । सांवलियाजी में चल रहे तीन दिवसीय जलझूलनी एकादशी मेले के दौरान हुए कवि सम्मेलन में एक ऐसा वाकया सामने आया, जिसने मेवाड़ की सदियों पुरानी परंपराओं पर धब्बा लगा दिया। मेवाड़ की रीत रही है कि यहां शत्रु भी आ जाए तो उसका मान-सम्मान होता है, लेकिन नेताजी के अहंकार ने इस परंपरा को कलंकित कर दिया।
कवि सम्मेलन में मंच से पढ़ी गई कुछ पंक्तियां नेताजी को इतनी नागवार गुज़रीं कि उन्होंने कार्यक्रम के बाद कवि को मंच के पीछे बुलाकर अपमानित करने में भी संकोच नहीं किया। यहां तक कह डाला कि “अगर मैं नहीं चाहता तो तुम यहां कदम भी नहीं रख सकते थे।”
कवि का केवल इतना कहना था कि वह न तो कांग्रेस का कवि है, न भाजपा का समर्थक—बल्कि जनता का कवि है। बस यही बात नेताजी के अहंकार को चुभ गई और वे आगबबूला हो उठे। उन्होंने न केवल तीखे शब्दों से कवि को नीचा दिखाने की कोशिश की, बल्कि उसकी जाति को लेकर भी ओछी टिप्पणी कर डाली।
लाखों आस्थावानों की धरा सांवलिया सेठ के चरणों में इस तरह का व्यवहार होना वास्तव में दुःखद है। यह प्रकरण इस बात की तस्दीक करता है कि सत्ता और पद के मद में चूर होकर कुछ लोग अपनी मर्यादा और संस्कृति तक भूल बैठे हैं।
इस पूरे घटनाक्रम की पुष्टि स्वयं आहत कवि ने भी की है। हालांकि हम यहां कवि का नाम उजागर नहीं कर रहे, क्योंकि उसका सम्मान हमारे लिए सर्वोपरि है। लेकिन यह प्रकरण जनता जनार्दन के सामने आना जरूरी था, ताकि पर्दे के पीछे की सच्चाई उजागर हो सके।
अभिमान के नशे में मर्यादा भुला दी गई
जाति के नाम पर भी कलम को सज़ा दी गई
आस्था की नगरी में अपमान का खेल हुआ
सम्मान का दरवाज़ा नेताजी से बंद हुआ












